व्रत के प्राभव से उसका शरीर तो शुद्ध हो गया परन्तु वह कभी ब्राह्मण एवं देवताओं के निमित्त अन्न दान नहीं करती थी ,इसलिए मने सोचा की यह स्त्री बैकुंठ में रहकर भी अतृप्त रहेगी अतः मैं स्वयं एक दिन उसके पास भिक्षा मांगने गया। जब मैंने उससे भिक्षा की याचना की तब उसने एक मिट्टी का पिंड उठाकर मेरे हतहो पर रख दिया। मैं वह पिंड लेकर अपने धाम लौट आया। कुछ समय बाद वह देह त्याग कर मेरे लोक में आ गयी। यहाँ उसे एक कुटिया और आम का पेड़ मिला।
खली कुटिया को देखकर वह घबराकर मेरे पास आई और बोली कि ,में तो धर्मपरायण हूं फिर मुझे खाली कुटिया क्यों मिली ? तब मैने उसे बताया की यह अन्न दान नहीं करने तथा मुझे मिट्ठी क पिंड देने से हुआ है। मैंने फिर उसे बताया की जब देव कन्याएं आपसे मिलने आएं तब आप अपना द्वार खोलना जब तक वे आपको षटतिला एकादशी के व्रत का विधान न बातएं। स्त्री ने ऐसा ही किया और जिन विधियों को देवकन्या ने कहा था उस विधि से षटतिला एकादशी का व्रत किया व्रत के प्रभाव से उसकी कुटिया अन्न धन से भर गयी। इसलिए हे नारद इस बात को सत्य मानो की ,जो व्यक्ति इस एकादशी क व्रत करता है और तिल एवं अन्न दान करता है उसे मुक्ति और वैभव की प्राप्ति होती है।